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Maharashtra Political Crisis Shiv Sena On Its Way To Being Freed From Thackeray Family’s Clutches – महाराष्ट्र का सियासी संकट: क्या ठाकरे परिवार की छाया से मुक्त होगी शिवसेना? दूसरे दलों के लिए ख़तरे की घंटी

News Desk by News Desk
June 23, 2022
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हिंदी का लोक कबीर में बसता है। तुलसी और कबीर भारतीय जनमानस के भीतर धड़क रहे ऐसे जनकवि हैं जिनका कहा दिग्गज के हिस्से भी आया है और रंक के भी। इन दिनों महाराष्ट्र का सियासी संकट कबीर के कहे को जतन से रखने और समझने की ही दुहाई दे रहा है।

कबीर कहते हैं-
 

 

इन दिनों महाराष्ट्र के सबसे बड़े राजनीतिक चेहरे शिवसेना के अध्यक्ष, राज्य के सीएम उद्धव ठाकरे की नियति कुछ ऐसी ही बन गई है। सियासी दुविधा में ना उन्हें माया मिल पाई है ना राम। ना हिंदुत्व साथ रहा ना धर्मनिरपेक्षता। हालात यह हैंं कि कभी भारतीय जनता पार्टी को नीचा दिखाने के लिए शिवसेना का सेक्युलर शिवसेना बनाने की उनकी रणनीति का घातक परिणाम दिख रहा है। उनकी सरकार तो खतरे में है ही, अपने पिता हिंदू हृदय सम्राट बाला साहेब ठाकरे की विरासत को भी वह बचा पाएंगे इसमें भारी संदेह है। उन्होंने अपने विधायक तो गंवाए ही हैं, अपने समर्पित कार्यकर्ता भी गंवा रहे हैं।

 

शिवसेना का एक अतीत भी है जो कभी दहकता था 

याद करिए, वर्ष 1991 में जब छगन भुजबल ने बाल ठाकरे के खिलाफ विरोध का बिगुल बजाया था और कांग्रेस में जाने का फैसला लिया था, तब शिवसैनिकों ने उनके आवास पर हमला बोल दिया था। भुजबल के घर को बुरी तरह तहस-नहस कर दिया था और उन पर हमला भी कर दिया था। इसी तरह 2005 में जब नारायण राणे ने बग़ावत की तो शिवसेना कार्यकर्ता उनके खिलाफ भी सड़क पर आ गए थे।

यहां तक कि शक्तिशाली नेता कहे जाने वाले राज ठाकरे के जब बाल ठाकरे से नाराज होकर पार्टी छोड़ने की ख़बर आई तो शिवसैनिकों ने उनके खिलाफ भी मोर्चा खोल दिया था। लिहाजा, राज को भूमिगत होने पर मजबूर होना पड़ा। लेकिन एकनाथ शिंदे के खिलाफ शिवसेना नेता तो दूर आम शिवसेना कार्यकर्ता भी कोई बयान नहीं दे रहा है और न कोई आंदोलन हो रहा है।

दरअसल, कहा जा रहा है कि उद्धव के मुख्यमंत्री बनने के बाद शिवसेना की कोंकण लॉबी ने ठाकरे परिवार के चारों ओर घेरा बना दिया। शिवसेना का कोई नेता उनसे मिल ही नहीं पाता था। यहां तक कि एकनाथ शिंदे भी दरकिनार कर दिए गए थे।
 

बहरहाल, कार्यकर्ताओं का सड़क पर न उतरना एक अगर संकेत की ओर इशारा कर रहा है कि उद्धव ठाकरे का 2019 विधानसभा चुनाव के नतीजे आने के बाद तीन दशक की सहयोगी भारतीय जनता पार्टी का साथ छोड़कर शरद पवार और कांग्रेस के साथ जाना शिवसैनिकों को रास नहीं आया। उससे भी बड़ी बात बतौर मुख्यमंत्री ढाई साल के कार्यकाल में उद्धव ने जो कुछ किया उससे शिवसेना के कार्यकर्ता खुश नहीं थे।
 

महाराष्ट्र की सियासत में अब तक शिवसेना 

वस्तुतः महाराष्ट्र में 1987 में शिवसेना-भाजपा भगवा गठबंधन में शिवसेना हमेशा बड़े भाई की भूमिका में रही, लेकिन 2014 में भाजपा से चुनावी तालमेल न होने से उसके विधायकों की संख्या कम हो गई। भाजपा का छोटा भाई बनना उद्धव को मंजूर नहीं हुआ। फिर भी चुनाव के बाद बने भगवा गठबंधन में विधायकों की संभावित बगावत को रोकने के लिए उन्हें न चाहते हुए भी छोटे भाई की भूमिका में आना पड़ा। इससे उद्धव के अहं को जबरदस्त चोट लगी थी। इसे वह भूल ही नहीं सके।

2019 के विधानसभा चुनाव के नतीजे में जब भाजपा की सीट 122 से घटकर 106 होने के बाद उन्हें अपमान का बदला लेने का मौका मिल गया। भाजपा-शिवसेना गठबंधन ने देवेंद्र फडणवीस के नेतृत्व में चुनाव लड़ा था, इसके बावजूद उन्होंने भाजपा के सामने ढाई-ढाई साल के मुख्यमंत्री के कार्यकाल की शर्त रख दी। देवेंद्र फडणवीस को दोबारा पांच साल के लिए मुख्यमंत्री बनाने की घोषणा कर चुकी भाजपा ने उनकी नामंजूर कर दी और गठबंधन टूट गया।  

इसके बाद भाजपा को सबक सिखाने के चक्कर में उद्धव ठाकरे मराठा क्षत्रप शरद पवार के चक्रव्यूह में फंस गए और कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के साथ महाविकास अघाड़ी का गठन कर राज्य में सरकार बनाई और खुद मुख्यमंत्री बन गए।

कांग्रेस-एनसीपी ने मिलकर हिंदू हृदय सम्राट बाल ठाकरे की शिवसेना को पूरी तरह ट्रांसफॉर्म कर दिया। उसे एक सेक्यूलर राजनीतिक पार्टी बना दिया जो हिंदू विरोधी कार्य करती दिख रही थी। इससे जो जिंदगी भर शिवसैनिक राग हिंदू आलापता था, वह पशोपेश में पड़ गया। उसे उद्धव का फ़ैसला हज़म ही नहीं हो रहा था।

शिवसेना विधायकों की हालत तो कार्यकर्ताओं से भी बुरी थी। वे देख रहे थे कि उनकी सरकार हिंदुत्व के पैरोकारों की ही खबर ले रही है और शिवसेना की इमेज हिंदू-विरोधी पार्टी की बनती जा रही है। इसे तो वोट देने वाले मतदाता स्वीकार नहीं करेंगे।

विधायकों को लग गया कि उद्धव की हिंदू विरोधी नीति तो उनका राजनीतिक करियर ही खत्म कर देगी। लिहाजा, जन प्रतिनिधियों का शिवसेना में दम घुटने लगा। वे मौका तलाशने लगे और व्यापक जनाधार के बावजूद पार्टी में साइडलाइन किए गए एकनाथ शिंदे ने जब विरोध करने की पहल की तो सभी विधायक उनके साथ हो लिए।  

एकनाथ शिंदे की बगावत कांग्रेस, समाजवादी पार्टी, तृणमूल कांग्रेस, राष्ट्रीय जनता दल और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी जैसे उन राजनीतिक दलों के लिए खतरे की घंटी हैं, जिन पर एक परिवार विशेष का वर्चस्व है। कांग्रेस पर गांधी परिवार का नियंत्रण है तो समाजवादी पार्टी पर मुलायम सिंह यादव के परिवार का वर्चस्व है। इसी तरह टीएमसी, आरजेडी  और एनसीपी पर क्रमशः ममता बनर्जी, लालू परिवार और शरद पवार के परिवार का नियंत्रण है।

इस बगावत से शिवसेना फिलहाल ठाकरे परिवार के चंगुल से मुक्त होने की राह पर पहुंच गई है। अगर उद्धव ठाकरे मजबूरी में एकनाथ शिंदे के नेतृत्व वाली शिवसेना में बने रहने का फैसला करेंगे, उनका शिवसेना पर कोई नियंत्रण ही नहीं रह जाएगा और अगर वह एकनाथ से अलग दूसरी पार्टी बनाएंगे, तब भी ठाकरे परिवार अपना परंपरागत चुनाव चिन्ह तीर-धनुष भी गंवा देगा। इस तरह शिवसेना देश की पहली पार्टी होगी जो शुरू से ही एक परिवार विशेष ने अधीन रहने के बाद अब उस दायरे से बाहर निकल रही है। यह देश की राजनीति में नए युग की शुरुआत होगी।

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण): यह लेखक के निजी विचार हैं। आलेख में शामिल सूचना और तथ्यों की सटीकता, संपूर्णता के लिए अमर उजाला उत्तरदायी नहीं है। अपने विचार हमें [email protected] पर भेज सकते हैं। लेख के साथ संक्षिप्त परिचय और फोटो भी संलग्न करें।

विस्तार

हिंदी का लोक कबीर में बसता है। तुलसी और कबीर भारतीय जनमानस के भीतर धड़क रहे ऐसे जनकवि हैं जिनका कहा दिग्गज के हिस्से भी आया है और रंक के भी। इन दिनों महाराष्ट्र का सियासी संकट कबीर के कहे को जतन से रखने और समझने की ही दुहाई दे रहा है।

कबीर कहते हैं-

 

संसारी से प्रीतड़ी, सरै न एको काम 

दुविधा में दोनों गए, माया मिली न राम 

 

इन दिनों महाराष्ट्र के सबसे बड़े राजनीतिक चेहरे शिवसेना के अध्यक्ष, राज्य के सीएम उद्धव ठाकरे की नियति कुछ ऐसी ही बन गई है। सियासी दुविधा में ना उन्हें माया मिल पाई है ना राम। ना हिंदुत्व साथ रहा ना धर्मनिरपेक्षता। हालात यह हैंं कि कभी भारतीय जनता पार्टी को नीचा दिखाने के लिए शिवसेना का सेक्युलर शिवसेना बनाने की उनकी रणनीति का घातक परिणाम दिख रहा है। उनकी सरकार तो खतरे में है ही, अपने पिता हिंदू हृदय सम्राट बाला साहेब ठाकरे की विरासत को भी वह बचा पाएंगे इसमें भारी संदेह है। उन्होंने अपने विधायक तो गंवाए ही हैं, अपने समर्पित कार्यकर्ता भी गंवा रहे हैं।

राजनीतिक टीकाकार इस बात पर हैरान हैं कि शिवसेना में अब तक की सबसे बड़ी बगावत हुई है लेकिन शिवसेना कार्यकर्ता खामोश हैं। शिवसैनिकों का ऐसा स्वभाव कभी नहीं देखा गया, जैसा इस बार दो दिन से देखा जा रहा है। आम शिवसैनिक सड़क पर आकर एकनाथ शिंदे का विरोध करने की बजाए टीवी पर राजनीतिक घटनाक्रम देख रहे हैं। शिवसैनिकों का यह रवैया लोगों की समझ से परे है।

 


शिवसेना का एक अतीत भी है जो कभी दहकता था 

याद करिए, वर्ष 1991 में जब छगन भुजबल ने बाल ठाकरे के खिलाफ विरोध का बिगुल बजाया था और कांग्रेस में जाने का फैसला लिया था, तब शिवसैनिकों ने उनके आवास पर हमला बोल दिया था। भुजबल के घर को बुरी तरह तहस-नहस कर दिया था और उन पर हमला भी कर दिया था। इसी तरह 2005 में जब नारायण राणे ने बग़ावत की तो शिवसेना कार्यकर्ता उनके खिलाफ भी सड़क पर आ गए थे।

यहां तक कि शक्तिशाली नेता कहे जाने वाले राज ठाकरे के जब बाल ठाकरे से नाराज होकर पार्टी छोड़ने की ख़बर आई तो शिवसैनिकों ने उनके खिलाफ भी मोर्चा खोल दिया था। लिहाजा, राज को भूमिगत होने पर मजबूर होना पड़ा। लेकिन एकनाथ शिंदे के खिलाफ शिवसेना नेता तो दूर आम शिवसेना कार्यकर्ता भी कोई बयान नहीं दे रहा है और न कोई आंदोलन हो रहा है।

दरअसल, कहा जा रहा है कि उद्धव के मुख्यमंत्री बनने के बाद शिवसेना की कोंकण लॉबी ने ठाकरे परिवार के चारों ओर घेरा बना दिया। शिवसेना का कोई नेता उनसे मिल ही नहीं पाता था। यहां तक कि एकनाथ शिंदे भी दरकिनार कर दिए गए थे।

 
बहरहाल, कार्यकर्ताओं का सड़क पर न उतरना एक अगर संकेत की ओर इशारा कर रहा है कि उद्धव ठाकरे का 2019 विधानसभा चुनाव के नतीजे आने के बाद तीन दशक की सहयोगी भारतीय जनता पार्टी का साथ छोड़कर शरद पवार और कांग्रेस के साथ जाना शिवसैनिकों को रास नहीं आया। उससे भी बड़ी बात बतौर मुख्यमंत्री ढाई साल के कार्यकाल में उद्धव ने जो कुछ किया उससे शिवसेना के कार्यकर्ता खुश नहीं थे।

 

कहा जाता है कि उद्धव ठाकरे मंत्रालय जाते ही नहीं थे और सत्ता का केंद्र रहने वाला वर्षा बंगला उनके कार्यकाल में सूना रहता था। कुल मिलाकर उद्धव ठाकरे की उदासीनता से शिवसेना कार्यकर्ताओं भी उदासीन हो गए। उन्हें लगने लगा था कि बालासाहेब ने जिस पौधे को सींच कर वट वृक्ष बनाया था, उद्ध ठाकरे उसे खौलता पानी दे रहे हैं। इसके बाद नेताओं-कार्यकर्ताओं का उद्धव-आदित्य से मोहभंग होने लगा। शिवसेना में बगावत के स्वर उभरते रहे और उद्धव को भनक तक नहीं लगी।



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News Desk

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